छत्तीसगढ में बस्तर गोंचा पर्व यहां की संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है जिसे बस्तरवासी धूमधाम से रीति-रिवाज और परंपरा के अनुसार मनाते आ रहे हैं। यद्यपि रियासतकाल में गोंचा सर्वधर्म समत्व के त्यौहार के रूप में मनाया जाता रहा है और इसमें 360 आरण्यक समाज का वर्चस्व होता था जो आज भी बरकरार है। बस्तर के आदिवासी समाज के बाद यहां के सबसे बड़े गैर आदिवासी ब्राम्हण समाज 360 आरण्यक ब्राम्हणों का है।
लगभग 700 वर्ष पूर्व उड़ीसा से यहां पहुंचे 360 आरण्यक ब्राम्हणों को बस्तर महाराजा ने अपने अधीन विभिन्न ग्रामों में पनाह दी थी और उनके जीवन यापन के लिए कृषि भूमि तक इन्हें मुहैया करायी थी। पूजा-पाठ के अतिरिक्त कृषि और पशुपालन भी इनका मुख्य आजीविका का साधन रहा है और आज भी वे इसे निभाते आ रहे हैं। बस्तर के न केवल आदिवासी समुदाय बल्कि सभी समुदाय से इनका मधुर संबंध है। विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिक दशहरा हो या गुंडिचा पर्व रथ बनाने का काम रियासत काल से बेड़ाउमरगांव के ही ग्रामीणों को निभाना पड़ता है। बस्तर महाराजा द्वारा सौंपे गए इस कार्य को दशकों से निभाते आ रहे हैं।
सिरहासार भवन में रथ निर्माण में लगे कारीगरों ने बताया कि रथ निर्माण का काम वे दशकों से करते आ रहे हैं। पूर्व में उनके पूर्वज यह काम किया करते थे। पूर्वजों द्वारा रियासतकाल से किए जा रहे कार्य को वर्तमान में भी पूरा किया जा रहा है। प्रति वर्ष 4 चक्के का विशाल रथ बनाने में 7 दिन का समय लग जाता है। नेत्रोत्सव से पूर्व रथ निर्माण का कार्य पूरा कर लिया जाता है। प्रत्येक वर्ष गुंडिचा में एक नए रथ का निर्माण किया जाता है। जिसकी चौड़ाई लगभग 14 फीट और लम्बाई 20 फीट होती है। रथ निर्माण के लिए 9 घन मीटर लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है। रथ की एक विशेषता यह भी है कि पूरे रथ निर्माण के दौरान ट्यूंस व साल लकड़ी का ही उपयोग किया जाता है। ट्यूंस की लकड़ी का उपयोग केवल रथ के एक्सल के लिए ही होता है।
513 साल से निर्बाध चली आ रही है रथयात्रा की परम्परा
513 वर्ष पूर्व प्रारंभ की गई रथयात्रा की यह परंपरा निर्बाध रूप से यथावत है। इस अवसर पर बस्तर अंचल के आदिवासी एवं गैर आदिवासी हजारों की संख्या में एकत्र होते हैं। परंपरागत तरीकों से रथों को सुसज्जित कर श्री जगन्नाथ मंदिर से भगवान श्री जगन्नाथ, श्री बलभद्र एवं बहन सुभद्राजी की प्रतिमाओं को रथारूढ़ कर नगर के गोल बाजार की परिक्रमा कर आषाढ़ शुक्ल 10 दिनों तक की जाती है, इस दौरान अस्थायी तौर पर सीरासार में विराजमान किया जाता है। इन दस दिनों तक नित्य प्रति हजारों की संख्या में भक्तगणों का दर्शनार्थ तांता लगा रहता है।
अन्न प्रासन्न एवं मुंडन संस्कार भी
अनेक श्रद्धालुओं द्वारा श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनी जाती है, साथ ही अन्न प्रासन, मुंडन संस्कार जैसे धार्मिक अनुष्ठान भी संपादित किए जाते हैं। एकादशी के दिन बाहड़ा गोंचा के अवसर पर सीरासार में अस्थायी तौर पर आरूढ़ भगवान की प्रतिमाओं को पुन: रथारूढ़ कर परिक्रमा के पश्चात विधि-विधान के साथ स्थायी मंदिर में स्थापित किया जाता है।
जानिए तुपकी के बारे में जो बनाता है बस्तर गोंचा को खास
छत्तीसगढ़ के आदिवासी वनांचल बस्तर में रथयात्रा पर्व गोंचा तिहार में तुपकी गोली चालन की एक विशिष्ट परंपरा व छटा दृष्टिगोचर होती है। बस्तर गोंचा अपने इसी अनूठेपन के कारण ही विश्वविख्यात है।
भगवान को सलामी का प्रतीक है तुपकी चालन
बस्तर गोंचा के सर्वाधिक आकर्षक पहलू तुपकी की चर्चा के बगैर पर्व का वर्णन अधूरा ही रहेगा। इस पर्व पर बस्तर में आदिवासी एक प्रकार की बांस की बंदूक का प्रयोग राजा एवं भगवान के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए सलामी देने के रूप में करते हैं। इस बांस की बंदूक को स्थानीय आदिवासी बोली में तुपकी कहते हैं। तुपकी दरअसल एयरगन जैसा बांस की पोली नली से बना उपकरण है। लगभग आधे इंच व्यास की पोंगली में चने के दाने के बराबर आकार का वनों में पैदा होने वाला हरा फल पेंग भरकर, एक कमची से पिचकारी चलाने की मुद्रा में निशाना साधा जाता है। पोले क्षेत्र में वायु के अवरोध के कारण बल के अनुसार जोरों की आवाज होती है और पेंग दूर तक मार करता है।
प्यार से सराबोर होती है तुपकी की मार
इस मनोरंजक खेल में आदिवासी स्त्री-पुरूष एक दूसरे पर निशाना साधते हैं, इनके बीच वर्ग-वर्ण का भेद नहीं होता। उल्लास को प्रकट करते हुए परस्पर हंसी-ठिठोली का यह क्षण उनके बीच अपनत्व का प्रतीक है। सैकड़ों तुपकियों की फट-फटाफट की आवाज वातावरण के आनंद में बहार ला देती है। तुपकी में लगी मीठी मार को हंसते-खीजते सह लेने के बाद ग्रामीण युवक-युवतियों का समूह राजमहल के इर्द-गिर्द निरंतर गतिमान रहता है। पेंग की मार कभी-कभी जीवन भर की टीस भी दे जाती है, बशर्ते वह प्यार से सराबोर हो।
क्या है पेंग
वस्तुत: यह मालकांगिनी नामक लता का फल है, जो अंगूर के गुच्छों की तरह उगता है। यह फल औषधीय गुणधारक है, इसका तेल जोड़ों में होने वाले गठिया के दर्द निवारण के लिए रामबाण है। गोंचा पर्व के दौरान कागज और सनपना की पन्नियों से सजाई गई रंग-बिरंगी विभिन्न आकार-प्रकार की तुपकियां लुभावनी लगती हैं। सम्पूर्ण भारत में बस्तर एवं सीमावर्ती उड़ीसा के चंद क्षेत्रों के अलावे तुपकी चालन की अनूठी परंपरा और कहीं नहीं है।